अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस: मजदूर, मजदूरी और पलायन की मजबूरी


                      0  राकेश कुमार  0

हर वर्ष 1 मई को जब अंतरराष्ट्रीय मजदूर दिवस मनाया जाता है, तो श्रमिकों के योगदान, अधिकारों और संघर्षों को याद किया जाता है। सरकारें और संस्थाएँ भाषण देती हैं, सेमिनार आयोजित होते हैं और मीडिया मजदूरों की भूमिका का महिमामंडन करता है। लेकिन असली सवाल यह है कि क्या इन आयोजनों का कोई वास्तविक असर मजदूरों की ज़िंदगी पर पड़ता है? क्या मजदूरों की रोजमर्रा की समस्याएँ, उनका आर्थिक और सामाजिक संघर्ष, इन मंचों पर सिर्फ एक दिन की चर्चा तक सीमित नहीं हो गया है?


भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण देश में जहाँ आर्थिक विकास की कहानियाँ तेजी से लिखी जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर देश का एक बड़ा तबका—खासकर मजदूर वर्ग—आज भी सम्मानजनक जीवन, स्थायी रोजगार और न्यायोचित मजदूरी से वंचित है। इस विडंबना को सबसे ज्यादा महसूस करता है बिहार। बिहार, जो कभी शिक्षा, संस्कृति और राजनीति की राजधानी माना जाता था, आज देश के उन राज्यों में गिना जाता है जहाँ से सबसे अधिक मजदूर पलायन करते हैं। पलायन बिहार की मजबूरी बन चुका है—एक ऐसी मजबूरी जो विकास के खोखले दावों की पोल खोल देती है।


बिहार के मजदूरों की कहानी किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि लाखों परिवारों की सामूहिक पीड़ा है। खेतों में मजदूरी करने वाला, ईंट-भट्टों पर काम करने वाला, दिल्ली, मुंबई, पंजाब और गुजरात की निर्माण साइटों पर खून-पसीना बहाने वाला बिहारी मजदूर सिर्फ अपने लिए नहीं, पूरे देश के विकास की नींव रखता है। लेकिन बदले में उसे मिलता है—कम वेतन, अपमान, शोषण और अनिश्चितता। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण और विभिन्न रिपोर्टों के अनुसार बिहार में दैनिक मजदूरी 200-300 रुपये के बीच है, जबकि अन्य राज्यों में यही मजदूरी दोगुनी या तीन गुनी है।


मनरेगा जैसी योजनाएँ ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार का एकमात्र विकल्प बन गई हैं, लेकिन भ्रष्टाचार, अफसरशाही और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण ये योजनाएँ भी अपनी प्रभावशीलता खोती जा रही हैं। मजदूरों के पास स्थायी रोजगार नहीं है। अधिकांश वर्ष वे बेरोजगारी या अस्थायी काम पर निर्भर रहते हैं, जिससे उनके जीवन में न तो सुरक्षा है और न ही भविष्य के प्रति कोई आश्वासन। इसी मजबूरी में उन्हें पलायन का रास्ता चुनना पड़ता है।


बिहार से बाहर जाने वाले श्रमिकों की संख्या लाखों में नहीं, करोड़ों में है। बिहार सरकार के अनुसार 2021 तक लगभग 3 करोड़ लोग राज्य से बाहर विभिन्न राज्यों में श्रम कर रहे थे। दिल्ली, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक जैसे राज्यों की हर बड़ी निर्माण परियोजना में बिहारी मजदूरों का पसीना बहता है। ये वही मजदूर हैं जो रेल की पटरियाँ बिछाते हैं, इमारतें खड़ी करते हैं, और सड़कों को जीवन देते हैं। लेकिन उनके अपने गाँव की गलियाँ बेरोजगारी और मायूसी से सूनी पड़ी रहती हैं।


कोविड-19 महामारी के दौरान जब लॉकडाउन लागू हुआ, तो प्रवासी मजदूरों की हालत ने पूरे देश को झकझोर दिया। हजारों मजदूर अपने गाँवों की ओर पैदल लौटे, कई रास्ते में दम तोड़ बैठे। यह सिर्फ एक मानवीय संकट नहीं था, यह उस आर्थिक ढांचे का भी पर्दाफाश था जिसने श्रमिकों को दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया। जब तक ज़रूरत रही, उन्हें इस्तेमाल किया गया, और संकट के समय उन्हें बेसहारा छोड़ दिया गया।


पलायन का असर केवल आर्थिक नहीं, सामाजिक स्तर पर भी गहरा होता है। गाँवों में युवा नहीं बचते, जिससे कृषि और सामाजिक संरचना दोनों कमजोर होती है। महिलाएँ घर और खेत दोनों का भार उठाती हैं, जबकि बच्चे बिना पिता के बड़े होते हैं। दूसरी ओर शहरों में भी इन श्रमिकों को इज्ज़त नहीं मिलती। उन्हें झुग्गियों में रहना पड़ता है, गंदगी और असुरक्षा भरे माहौल में जीवन बिताना पड़ता है।


श्रम कानूनों की बात करें तो कागजों पर भले ही भारत में 8 घंटे काम करने का प्रावधान है, लेकिन हकीकत में अधिकांश फैक्ट्रियों और निजी प्रतिष्ठानों में श्रमिकों से 10 से 12 घंटे काम लिया जाता है। उन्हें ओवरटाइम का भुगतान भी नहीं मिलता। महिला मजदूरों के लिए स्थिति और भी खराब है। उन्हें समान कार्य के लिए समान वेतन नहीं मिलता, उनके लिए शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाएँ तक उपलब्ध नहीं होतीं, और कई बार यौन उत्पीड़न जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।


बंधुआ मजदूरी भारत में आज भी एक कटु सत्य है। संविधान का अनुच्छेद 23 और बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अधिनियम 1976 ऐसे शोषण को गैरकानूनी मानते हैं, लेकिन व्यवहार में ये कानून प्रभावहीन सिद्ध हो रहे हैं। आज भी कई स्थानों पर लोगों को सिर्फ कुछ अनाज या मामूली मजदूरी के लिए ज़बरदस्ती काम कराया जाता है। यह न केवल कानूनी व्यवस्था की विफलता है, बल्कि हमारे सामाजिक ताने-बाने पर भी एक गहरा प्रश्नचिह्न है।


अब समय आ गया है कि हम श्रमिकों के मुद्दों को सिर्फ एक दिवस तक सीमित न रखें, बल्कि उन्हें नीति-निर्माण के केंद्र में रखें। सरकारों को चाहिए कि वे श्रमिकों की न्यूनतम मजदूरी सुनिश्चित करें, श्रम कानूनों का सख्ती से पालन कराएं, पलायन को रोकने के लिए स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर पैदा करें, और महिला श्रमिकों के लिए सुरक्षित व समान कार्य वातावरण सुनिश्चित करें।


मजदूर केवल दीवारें खड़ी नहीं करता, वह देश के सपनों की बुनियाद रखता है। यदि हम उसके श्रम का मूल्य नहीं पहचानते, उसकी अस्मिता और गरिमा की रक्षा नहीं करते, तो यह केवल एक सामाजिक विफलता नहीं, नैतिक पतन भी होगा। मजदूरी को मजबूरी से मुक्त करना होगा—यही इस दिवस की सच्ची सार्थकता होगी।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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