भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी बहादुर शाह जफर की पुण्यतिथि पर सत्याग्रह रिसर्च फाउंडेशन द्वारा दी गई भावभीनी श्रद्धांजलि,

 


बेतिया,7 नवंबर। सत्याग्रह रिसर्च फाउंडेशन के सभागार सत्याग्रह भवन में श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया गया ,इसमें विभिन्न सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों एवं बुद्धिजीवियों ने भाग लिया, इस अवसर पर अंतरराष्ट्रीय पीस एंबेस्डर सह सचिव सत्याग्रह रिसर्च फाउंडेशन डॉ एजाज अहमद अधिवक्ता एवं डॉ सुरेश कुमार अग्रवाल ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 के महानायक बहादुर शाह जफर श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए कहा कि

हिंदुस्तान के आखरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का जिक्र आते ही उनकी उर्दू शायरी और हिंदुस्तान से उनकी मोहब्बत की भी बात होती है.  21 सितंबर के दिन को अंग्रेज हुक्मरान के हाथों उनकी गिरफ्तारी के लिए इतिहास में दर्ज किया गया है. कहने को तो वह 1837 में बादशाह बनाए गए, लेकिन तब तक देश के काफी बड़े इलाके पर अंग्रेजों का कब्जा हो चुका था.

1857 में क्रांति की चिंगारी भड़की तो सभी विद्रोही सैनिकों और राजा-महाराजाओं ने उन्हें हिंदुस्तान का सम्राट माना और उन्होंने भी अंग्रेजों को खदेड़ने का आह्वान किया, लेकिन 82 बरस के बूढ़े बहादुर शाह जफर की अगुवाई में लड़ी गई यह लड़ाई कुछ ही दिन चली और आज के दिन अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया

1857 में ब्रिटिशों ने तकरीबन पूरे भारत पर कब्जा जमा लिया था. ब्रिटिशों के आक्रमण से तिलमिलाए विद्रोही सैनिक और राजा-महाराजाओं को एक केंद्रीय नेतृत्व की जरूरत थी, जो उन्हें बहादुर शाह जफर में दिखा. बहादुर शाह जफर ने भी ब्रिटिशों के खिलाफ लड़ाई में नेतृत्व स्वीकार कर लिया. लेकिन 82 वर्ष के बूढ़े शाह जफर अंततः जंग हार गए और अपने जीवन के आखिरी वर्ष उन्हें अंग्रेजों की कैद में गुजारने पड़े.

तबीयत से कवि हृदय बहादुर शाह जफर शेरो-शायरी के मुरीद थे और उनके दरबार के दो शीर्ष शायर मोहम्मद गालिब और जौक आज भी शायरों के लिए आदर्श हैं. जफर खुद बेहतरीन शायर थे. दर्द में डूबे उनके शेरों में मानव जीवन की गहरी सच्चाइयां और भावनाओं की दुनिया बसती थी. रंगून में अंग्रेजों की कैद में रहते हुए भी उन्होंने ढेरों गजलें लिखीं. बतौर कैदी उन्हें कलम तक नहीं दी गई थी, लेकिन सूफी संत की उपाधि वाले बादशाह जफर ने जली हुई तीलियों से दीवार पर गजलें लिखीं.

बर्मा में अंग्रेजों की कैद में ही 7 नवंबर, 1862 को सुबह बहादुर शाह जफर की मौत हो गई. उन्हें उसी दिन जेल के पास ही श्वेडागोन पैगोडा के नजदीक दफना दिया गया. इतना ही नहीं उनकी कब्र के चारों ओर बांस की बाड़ लगा दी गई और कब्र को पत्तों से ढंक दिया गया. ब्रिटिश चार दशक से हिंदुस्तान पर राज करने वाले मुगलों के आखिरी बादशाह के अंतिम संस्कार को ज्यादा ताम-झाम नहीं देना चाहते थे. वैसे भी बर्मा के मुस्लिमों के लिए यह किसी बादशाह की मौत नहीं बल्कि एक आम मौत भर थी.

उस समय जफर के अंतिम संस्कार की देखरेख कर रहे ब्रिटिश अधिकारी डेविस ने भी लिखा है कि जफर को दफनाते वक्त कोई 100 लोग वहां मौजूद थे

आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की मौत 1862 में 87 साल की उम्र में बर्मा (अब म्यांमार) की तत्कालीन राजधानी रंगून (अब यांगून) की एक जेल में हुई थी, लेकिन उनकी दरगाह 132 साल बाद 1994 में बनी. इस दरगाह की एक-एक ईंट में आखिरी बादशाह की जिंदगी के इतिहास की महक आती है. इस दरगाह में महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग प्रार्थना करने की जगह बनी है. ब्रिटिश शासन में दिल्ली की गद्दी पर बैठे बहादुर शाह जफर नाममात्र के बादशाह थे.

  सुल्‍ताना बेगम भारत के आखिरी मुगल शासक बहादुर शाह जफर की पौत्रवधू हैं. अपनी शाही विरासत के बावजूद वो मामूली पेंशन पर रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने की जद्दोजहद में लगी रहती हैं. उनके पति राजकुमार मिर्जा बेदर बख्‍त की साल 1980 में मौत हो गई थी और तब से वो गरीबों की जिंदगी जी रही हैं. वो हावड़ा की एक झुग्‍गी-छोपड़ी में रह रही हैं. यही नहीं उन्‍हें अपने पड़ोसियों के साथ किचन साझा करनी पड़ती है और बाहर के नल से पानी भरना पड़ता है.

आपको बता दें, आज वह हमारे बीच नहीं है लेकिन उनके प्रति सम्मान का अंदाजा इसी बाद से लगा सकते हैं कि आज देश में कई सड़कों का नाम ''बहादुर शाह जफर'' रोड से है. वहीं पाकिस्तान के लाहौर शहर में भी उनके नाम से एक सड़क का नाम रखा गया है. बांग्लादेश में विक्टोरिया पार्क का नाम बदल कर ''बहादुर शाह जफर'' नाम रख दिया गया है.

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