धर्म के नाम पर आदिवासियों का जंतर मंतर पर प्रदर्शन विघटनकारियों की साजिश तो नहीं

 




श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय तीसरे में स्थित पैंतीसवां श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है " श्रेयान्स्वधर्मो विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।। अर्थात दुसरे के धर्म से गुण रहित भी अपना धर्म अति उत्तम है। अपने धर्मों में मरना भी कल्याणकारक है और दुसरे का धर्म भय को देनेवाला होता है। मैं बात कर रहा हूँ भारत के आदिवासियों पर, पिछले दिनों आदिवासियों ने एक अलग धर्म श्रेणी की मांग को लेकर जंतर मंतर पर विरोध प्रदर्शन करते हुए अपनी मांग देश के सामने रखी थी, जो आदिवासी भारत के सनातन पद्धित में अपना जीवन शैली का दर्शन मान रहा था। वह एकाएक उक्त मांग के लिए अपना विरोध प्रदर्शन जंतर मंतर पर कर रहा है, यह प्रदर्शन देश के लिए चिंतनीय और विचारणीय है। भागवान राम और श्रीकृष्ण की जीवन शैली में विश्वास और आस्था रखनेवाले आदिवासियों को यह सोचना चाहिए कि आदिवासी शब्द हमारे सनातन में नहीं है, हमारे सनातन में बनवासी है।जो जंगल में रहते थे, उन्हें बनवासी कहा जाता था। 


भगवान राम जब जंगल में गये तो, उन्हें भी रावण बनवासी कहकर सम्बोधन किया था। प्रश्न यह उठता है कि बनवासी को आदिवासी किसने कहा, और क्यों कहा, कहने की उसकी मांसिकता क्या थी, उसका उद्देश्य क्या था, इन सारे प्रश्नों के ढूंढने पर एक ही जबाब मिलता है कि अंग्रेज तथा अंग्रेजियत और उनका भारत में शासन। अंग्रेजों कि नियति रही कि भारत में फूट डालों और शासन करो। यह नीति उनके लिए तब और आवश्यक हो गयी जब भारत के प्रथम स्वतंत्रता की लड़ाई में बनवासी, ग्रामीण और नगरवासी एक होकर लड़ाई लड़े थे। अंग्रेजों का पांव भारत से उखड़ गये रहते, अगर देश के कुछ रियासत दगा नहीं दिये रहते। अंग्रेजों ने भारत में जातिय विभेद का जो नींवकरण किया, उसमें बनवासियों को आदिवासी का दर्जा दिया। क्योंकि तबके बिहार और आज के झारखण्ड़ के बिरसा मुण्ड़ा की ताकत को पहचान चुके थे। 'आदिवासी' शब्द पर विचार करने से पहले लॉर्ड मैकाले का उल्लेख करना यहाँ अवश्यक है।


भारतीय संस्कृति और शिक्षा को तहस नहस करने में मैकाले का बड़ा योगदान है। भारत में पश्चिमी शिक्षा प्रणाली की शुरूआत में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए मैकाले को माना जाना जाता है। क्षेत्रीय संस्कृति, पाठ्यचर्या पर अंग्रेजी संस्कृति से संबंधित किसी भी चीज की श्रेष्ठता मैकाले की देन है।सन् 1835 में 'मैकाले ने बड़ी होशियारी से पारंपरिक और प्राचीन भारतीय शिक्षा और व्यावसायिक प्रणाली और विज्ञान का व्यवस्थित रूप से सफाया कर दिया। उक्त घटनाओं पर देश के बुद्धिजीवी चिन्तन कर रहें है कि  हम क्या थे और हम क्या हो गये हैं। हमारी एकता देश की एकता थी।इस देश में हम सभी सैन्धवी थे, परन्तु जब अरबियन आये, तो हम हिन्द कहे गये, फिर उसको हमने स्वीकार कर लिया, फिर उनलोगों ने हमें हिन्दवासी से हिन्दू बना दिया, फिर संस्कृति को तोड़ने के लिए मुस्लमान बना दिया, देश इस पीड़ा को भी झेल लिया। 


फिर अंग्रेज आये, तो इन्होनें हमें ईसाइयत की पाठ पढाई और ईसाई भी बन गये, जिसके नाम पर देश बंटवारा की पीड़ा झेलेते रहें। आज की युवा पीढ़ी, प्रबुद्धजन सभी देश के विभिन्न ऐतिहासिक घटनाओं के विचारोपरांत 

 एक होकर रहना चाह रहा है, तो बीच में अंग्रेजियत कानून का हवाला देकर अपनी सुविधा की मांग करनेवाले लोगों को अपनी मांग पर विचार करना चाहिए । जंतर मंतर का उक्त प्रदर्शन क्या दर्शा रहा हैं, हमें सभी को सोचना चाहिए। मैं आदिवासियों का ध्यान श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय के चालीसवां श्लोक पर ध्यान आकृष्ट करना चाहूँगा कि भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि " कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्मा: सनातना:।धर्मे नष्टे कुलं कुत्स्त्रमधर्मोयभिभवत्युत।। अर्थात कुल के नाश से सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाते हैं, धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में पाप भी बहुत फैल जाता है। इसलिए मैं यह कहना चाहूंगा कि आदिवासियों को अपने धर्म का वर्गीकरण नहीं करना चाहिए। अपने सनातन परम्परा में रहकर अपने अधिकार की लड़ाई देश और संविधान से लड़ें, किसी के बहकावें का शिकार नहीं बने, क्योंकि गौरतलब है कि जिन लोगों ने आपको बनवासी के जगह पर आदिवासी कहा, वही आपकी पहचान मिटाने के लिए आपके  बीच बड़े पैमाने पर धर्मांतरण शुरू किया,जिसका शिकार बड़े पैमाने पर झारखंड, छत्तीसगढ़ और पूरे उत्तर पूर्व आदि के आदिवासी क्षेत्र हुआ है। 


भारत प्राचीनता से लेकर अब तक एक लंबा सफर तय किया है। अब, कई दक्षिण एशियाई देश नेतृत्व के लिए भारत की ओर देखते हैं। एक परमाणु शक्ति, भारत तेजी से विकास कर रहा है और उम्मीद की जाती है कि वह थोड़े समय के भीतर अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस आदि जैसे विकसित देशों के बराबर आ जायेगा। पश्चिमी शक्तियों ने महसूस किया है कि विकास की इस तेज गति को तभी रोका जा सकता है, जब आंतरिक भारत में अशांति पैदा की जा सके। आदिवासियों के लिए एक अलग धर्म संहिता का मुद्दा उठाने वाले लोग सीधे पश्चिमी शक्तियों के हाथ में खेल रहे हैं। एक अलग आदिवासी धर्म पश्चिमी शक्तियों को आदिवासियों के ईसाई धर्म में बड़े पैमाने पर रूपांतरण की सुविधा प्रदान करने में मदद करेगा। यह इस तथ्य से समझा जा सकता है कि लगभग पूरे पूर्वोत्तर भारत और झारखंड, छत्तीसगढ़ आदि के आदिवासियों का एक बड़ा हिस्सा ईसाई धर्म में परिवर्तित हो गया है। इन क्षेत्रों में ईसाई मिशनरियों के प्रभाव का उपयोग करके पश्चिमी शक्तियाँ भारत को आंतरिक रूप से अस्थिर करने का प्रयास कर सकती हैं और इस तरह इसकी प्रगति के मार्ग में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं। 


अगर भारत को अमेरिका, चीन, पश्चिमी यूरोपीय देशों जैसे देशों को हराना है, तो उसे एकजुट रहना होगा और अपनी सारी ऊर्जा विकास के मोर्चे पर केंद्रित करने की जरूरत है। आदिवासियों के लिए अलग धर्म संहिता जैसे मुद्दे देश को भीतर से ही कमजोर कर सकते हैं, जो नहीं समझते हैं, उनके लिए जटिलता, भारत में 100 जनजातियाँ हैं। धर्मों को 1-6 (हिंदू धर्म, सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म) से कोड़ सौंपा गया है, जिसके आधार पर जाति जनगणना की जाती है। प्रत्येक जनजाति के लिए 100 से अधिक कोड निर्दिष्ट करने की कल्पना करें। प्रक्रिया को जटिल बनाने से, आदिवासी कार्यकर्ता क्या हासिल करेंगे? यदि कोई जनजातीय कार्यकर्ताओं की आदिवासियों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देने की मांग पर विचार करता है, तो एक संभावित प्रभाव यह हो सकता है कि वे कई एसटी लाभों को खो देंगे, जो वर्तमान में उनकी समग्र विकास और सशक्तिकरण में उनकी मदद कर रहे हैं।


लेखक


प्रो. अरविन्द नाथ तिवारी

विभागाध्यक्ष, इतिहास विभाग

पीयूएसटी महिला महाविद्यालय

बगहा, पश्चिम चम्पारण, बिहार

मो9931684066

arvindnathtiwari717@gmail.com

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