बालको एवं महिलाओं पर हिंसा उन्मूलन को और भी सख्त कदम उठाए संयुक्त राष्ट्र संघ एवं विश्व बिरादरी,.

 


पटना, 02 जनवरी। सत्याग्रह रिसर्च फाउंडेशन के सभागार सत्याग्रह भवन में विश्व स्वास्थ संगठन एवं भारत सरकार द्वारा ओमिक्रोन गाइडलाइन का पालन करते हुए अंतर्राष्ट्रीय दास प्रथा उन्मूलन दिवस के अवसर पर एक भव्य कार्यक्रम का आयोजन किया गया, जिसमें विभिन्न सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों, बुद्धिजीवियों एवं छात्र छात्राओं ने भाग लिया, इस अवसर पर अंतर्राष्ट्रीय पीस एंबेस्डर सहा सचिव सत्याग्रह रिसर्च फाउंडेशन डॉ एजाज अहमद अधिवक्ता एवं डॉ सुरेश कुमार अग्रवाल चांसलर प्रज्ञान अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय झारखंड संयुक्त रूप से कहा कि प्रतिवर्ष 02 दिसम्बर को अंतरराष्ट्रीय दास प्रथा उन्‍मूलन दिवस मनाया जाता है। इस दिवस को मनाये जाने का मुख्य उद्देश्य- “सम्पूर्ण विश्व से दास प्रथा को समाप्त करना है।” दास प्रथा विश्व के अधिकांश देशों में प्राचीन समय से ही व्य्पाप्त रही है। संयुक्त राष्ट्र की ओर से 2 दिसंबर1949 को ‘अंतरराष्ट्रीय दास प्रथा उन्मूलन दिवस’ के तौर पर मनाने की घोषणा की गई है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने मानव तस्करी और वेश्वावृत्ति को रोकने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया था, जिसके बाद से हर साल 2 दिसंबर को यह दिवस मनाया जाता है। इस अवसर पर डॉ एजाज अहमद अधिवक्ता, डॉ सुरेश कुमार अग्रवाल, डॉ शाहनवाज अली, अमित कुमार लोहिया, जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता नविंदु चतुर्वेदी एवं पश्चिम चंपारण कला मंच की संयोजक शाहीन परवीन ने कहा कि

18वीं शती में पश्चिम में दासप्रथा उन्मूलन संबंधी वातावरण बनने लगा था। अमरीकी स्वातंत्र्य युद्ध का एक प्रमुख नारा मनुष्य की स्वतंत्रता भी था , फलस्वरूप संयुक्त राज्य के उत्तरी राज्यों में सन् 1804 तक दासताविरोधी वातावरण बनाने में मानवीय मूल अधिकारों पर घोर निष्ठा रखनेवाली फ्रांसीसी राज्यक्रांति का अधिक महत्व है।  1890 में ब्रसेल्स के 18 देशों के सम्मेलन में हब्श दासों के समुद्री व्यापार को अवैधानिक घोषित किया गया। महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में दास प्रथा उन्मूलन एवं अफ्रीकी एशियाई लोगों के लिए दक्षिण अफ्रीका की धरती पर सत्याग्रह के माध्यम से सत्याग्रह आंदोलन का आरंभ किया था, आखिरकार पश्चिम के सभ्य समाज एवं शासकों को अफ्रीकी एशियाई लोगों को दास प्रथा से मुक्ति एवं नागरिक अधिकार उपलब्ध कराना पड़ा, 1919 के सैंट जर्मेन संमेलन में तथा 1926 के लीग ऑव नेशंस के तत्वावधान में किए गए संमेलन में हर प्रकार की दासता तथा दासव्यापार के संपूर्ण उन्मूलन संबंधी प्रस्ताव पर सभी प्रमुख देशों ने हस्ताक्षर किए। ब्रिटिश अधिकृत प्रदेशों में सन् 1833 में दासप्रथा समाप्त कर दी गई । अन्य देशों में कानूनन इसकी समाप्ति इन वर्षों में हुई – भारत 1846, स्विडेन 1859, ब्राजिल 1871, अफ्रिकन संरक्षित राज्य 1897, 1901, फिलिपाइन 1902, अबीसीनिया 1921। इस प्रकार 20वीं शती में प्राय: सभी राष्ट्रों ने दासता को अमानवीय तथा अनैतिक संस्था मानकर उसके उन्मूलनार्थ कदम उठाए। इस अवसर पर वक्ताओं ने कहा कि दक्षिण एशिया विशेष रूप से भारत, पाकिस्तान और नेपाल में ग़रीबी से तंग लोग ग़ुलाम बनने पर मजबूर हुए। विगत 2 वर्षों में पूरा विश्व मानव इतिहास की सबसे बड़ी त्रासदी कोरोनावायरस संक्रमण जूझ रहा है विश्व के लाखों बच्चे एवं बच्चियां आर्थिक तंगी के कारण शिक्षा छोड़ने एवं बाल मजदूरी करने पर विवश हैं , भारत में भी बंधुआ मज़दूरी के तौर पर दास प्रथा जारी है। सत्याग्रह रिसर्च फाउंडेशन ,बचपन बचाओ आंदोलन, कैलाश सत्यार्थी फाऊंडेशन, यूनिसेफ एवं विभिन्न सामाजिक संगठनों को पश्चिम चंपारण जिले से भी बाल मजदूरी के चौंकाने वाले आंकड़े उपलब्ध हुए हैं, हालांकि सरकार ने वर्ष 1975 में राष्ट्रपति के एक अध्यादेश के जरिए बंधुआ मज़दूर प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया था, किंतु इसके बावजूद यह सिलसिला आज भी जारी है। भारत के ‘श्रम व रोजगार मंत्रालय’ की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार देश में 19 प्रदेशों से दो लाख 86 हज़ार 612 बंधुआ मज़दूरों की पहचान की गई और उन्हें मुक्त कराया गया। उत्तर प्रदेश के 28 हज़ार 385 में से केवल 58 बंधुआ मज़दूरों को पुनर्वासित किया गया। इस अवसर पर वक्ताओं ने संयुक्त राष्ट्र संघ एवं विश्व बिरादरी से आह्वान करते हुए कहा कि बाल को एवं महिलाओं के प्रति हिंसा उन्मूलन के प्रति और भी कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है ताकि बाल को एवं महिलाओं के जीवन में वास्तविक खुशहाली लाई जा सके जिसका सपना महात्मा गांधी स्वतंत्रता सेनानियों एवं हमारे पुरखों ने देखा था,

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